पाठ-5
कलीसिया: मसीह का षरीर
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एक उत्साही फरीसी थे साऊल- मषहूर रब्बी, गमालिएल के षिश्य। ईसा का नाम तक इस धरती पर से मिटाने की थी उनकी आषा। एक दिन वे अधिकार पत्र लेकर दमिष्क जा रहे थे ताकि वहाँ मसीह के मार्ग पर चलने वाले जो भी मिलें, स्त्रियाँ या पुरुश, उन्हें बाँधकर येरुसालेम ले आयें। जब वे दमिष्क के पास पहुँचे, तो एकाएक एक ज्योति उनके चारों ओर चमक उठी। वे भूमि पर गिर पड़े और एक वाण्ी यह कहती हुई सुनाई दी, ‘‘साऊल, साऊल, तुम मुझ पर क्यों अत्याचार करते हो ?’’ उन्होंने कहा, ‘‘प्रभु, आप कौन हैं ?’’ उत्तर मिला, ‘‘मैं ईसा हूँ जिस पर तुम अत्याचार करते हो। उठो और षहर जाओ। तुम्हें जो करना है वह तुम्हें बताया जाएगा’’। वे अन्धे हो गये और साथियों ने हाथ पकड़कर उन्हें दमिष्क पहुँचाया (प्रेरित चरित 9: 1-9)।साऊल अपने को दिखायी गयी अनोखी ज्योति का अर्थ समझ सके: ‘यहूदी धर्म के नेताओं ने ईषनिन्दक समझकर जिसे सलीब पर चढ़ाया था उसी ईसा नाजरी ने पुनर्जीवित होकर मुझे दर्षन दिये हैं। वे सचमुच जीवित है।’ यह घटना साऊल को यह समझने में सहायक रही कि ईसा अपने अनुयायी मसीहियों - कलीसिया- में जीवित हैं तथा उनके जरिये कार्यरत हैं।
कलीसिया: मसीह का षरीर
पौलुस बने साऊल को ईष्वरीय दर्षन से प्राप्त महत्वपूर्ण जानकारी थी कि कलीसिया मसीह का षरीर है। पौलुस को इस दर्षन द्वारा ईसा ने स्पश्ट किया कि जब मसीही विष्वासी सताये गये तब ईसा ही सताये गये। रोमियों के नाम पत्र में पे्ररित सन्त पौलुस कहते हैं, ‘‘हम अनेक होते हुए भी मसीह में एक ही षरीर और एक दूसरे के अंग होते हैं’’ (रोमियों 12: 5)। वे यह भी सिखाते हैं कि मसीह ही षरीर अर्थात् कलीसिया के षीर्श हैं (कलीसियों 1: 18)। जिसका षीर्श मसीह हैं, उस कलीसियायी षरीर का अंग है हम में से हर एक सदस्य।पूरे षरीर का नियंत्रण करने की षक्ति सिर से ही प्रत्येक अंग की ओर बहती है। इसी प्रकार मसीह जो षीर्श हैं, उनसे ही कलीसिया के सदस्यों को, जो मसीह के षरीर के अंग हैं, षक्ति प्राप्त होती है। जैसे प्रत्येक अंग सिर की आज्ञा मानता है वैसे ही कलीसिया के प्रत्येक सदस्य को मसीह की आज्ञा माननी चाहिए। मनुश्य में षरीर से सिर का सम्बन्ध सजीव है। इसी प्रकार कलीसिया से मसीह का सजीव सम्बन्ध होता है। सिर और षरीर का प्रत्येक अंग एक ही जीवन के भागीदार हैं। इसी प्रकार षीर्श-मसीह का ईष्वरीय जीवन ही हमारी - अंगों की - ओर बहता है।ईसा कलीसियायी षरीर का पोशण करता है
ईसा ने अपने षिश्यों से कहा: मैं तुम लोगों को अनाथ छोड़कर नहीं जाऊँगा (योहन 14: 18)। मैं संसार के अन्त तक सदा तुम्हारे साथ हूँ (मत्ती 28: 20)। ईसा की यह निरंतर उपस्थिति कलीसिया में मुख्यतः पवित्र वचन, संस्कारों तथा कलीसियायी एकता द्वारा जारी रहती है। पवित्र वचन के जरिये ईसा हमारी अगुआई करते हैं। पवित्र बलिदान द्वारा रोज़ हमारा पोशण करते हैं। ईसा के षरीर और रक्त में भागीदार होकर हम उनके साथ एक हो जाते हैं। साथ ही साथ एक ही रोटी और एक ही प्याले में भागीदार होने से कलीसिया के सदस्य आपस में एक बन जाते हैं। इस प्रकार कलीसियायी एकता षक्ति पाती है।कलीसिया में भिन्न-भिन्न सेवाकार्य
जैसे षरीर के अंग अनेक होते हुए भी सब मिलकर एक षरीर बनता है वैसे ही मसीह में विष्वासीगण एक षरीर बनता है (1 कुरिंथि 12: 12)। एक षरीर में अनेक अंग होते हैं; लेकिन प्रत्येक अंग का काम दूसरे से भिन्न है। षरीर के प्रत्येक अंग का अपना महत्व है। सब अंग परस्पर एक-दूसरे की मदद करते रहते हैं। तभी षरीर के कार्य आसानी से चलेंगे। इसी प्रकार कलीसिया में प्रत्येक अंग का कार्य दूसरे से भिन्न है। ईष्वर ने हर एक को अलग-अलग सेवाकार्य सौंपा है।जैसे प्रेरित संत पौलुस कहते हैं, ईष्वर ने कलीसिया में भिन्न-भिन्न लोगों को नियुक्त किया है- पहले पे्ररितों को, दूसरे भविश्यवक्ताओं को, तीसरे षिक्षकों को और तब चमत्कार दिखाने वालों को। इसके बाद स्वस्थ करने वालों, परोपकारकों, प्रषासकों, अनेक भाशाएँ बोलने वालों को (1 कुरिंथि 12: 28)। हर एक को सौंपे गये सेवा कार्य के अनुसार उसको निभाने की कृपा भी ईष्वर ने दी है (1 कुरिंथि 12: 8-11)।कलीसिया की संतान होने के नाते हमें यह समझना चाहिए कि हमें और दूसरों को दिए गए दान एवं वरदान ईष्वर की ओर से हैं तथा ईसा की इच्छा के अनुसार उनका उपयोग करना है। ईष्वर की महिमा और कलीसिया के बढ़ावे को लक्ष्य बना कर ही उनका उपयोग करना चाहिए। पवित्र ग्रंथ हमें सिखाता है कि भलाई करने और अपने पास जो है उसे बाँटने में विमुखता नहीं दिखानी चाहिए। लेने की अपेक्षा देना अधिक सुखद है (प्रेरित चरित 20: 35)। धन्य कुरियाकोस एलियास चावरा सिखाते हैं, ‘‘ जिस दिन दूसरों की भलाई के लिए कुछ नहीं कर सका उस दिन को अपनी आयु के दिनों में नहीं जोड़ना।’’ईष - वचन पढ़ें और मनन करें
1 कुरिंथि 12ः12-31कंठस्थ करें
‘‘आप सब मिलकर मसीह का षरीर हैं और आप में से प्रत्येक उसका एक अंग है।’’(1 कुरिंथि 12: 27)हम प्रार्थना करें
हे मसीह, आप कलीसियायी षरीर के षीर्श और संरक्षक हैं; आप में बढ़ने और कलीसियायी षरीर का निर्माण करने की षक्ति हमें दीजिए।मेरा निर्णय
मैं अपनी पल्ली, जो कलीसिया की स्थानीय इकाई है, के भिन्न-भिन्न सेवाकार्यों में सजीव रूप से भाग लूँगा/गी।कलीसिया के अनुसार विचार करें
जैसे षरीर के अंग अनेक होते हुए भी, सब मिलकर एक षरीर बनता है वैसे ही मसीह में विष्वासी गण एक षरीर बनते हैं (कुरिंथि 12: 12)। मसीह के इस षरीर के निर्माण में सदस्यों एवं उनके कर्तव्यों की विविधता स्पश्ट है। लेकिन एक ही है पवित्रात्मा जो कलीसिया के कल्याण के लिए अपने भिन्न-भिन्न दान उस पर बरसाता है। वह अपनी समृद्धि तथा कलीसिया के सेवाकार्यों की जरूरतों के अनुसार अपने दान बाँटता है। (कलीसिया-7)अपनी कलीसिया को जानें
सत्रहवीं सदी तक मार थोमा मसीहियों की अगुआई कलदायी प्राधिधर्माध्यक्ष द्वारा नियुक्त धर्माध्यक्ष करते थे। वे विदेषी थे; इसलिए कलीसिया के प्रषासन सम्बन्धित कार्य मुख्यतः धर्मसेवक (जो भारतीय होते थे) में निहित थे। धर्मसेवक अविवाहित याजक थे। कलीसिया के सदस्यों की सामाजिक एवं कलीसियायी अगुआई धर्मसेवक करते थे। मार थोमा मसीहियों के आन्तरिक कार्यों में वे ही निर्णय लेते थे। धर्माध्यक्ष की अनुपस्थिति में कलीसिया का प्रषासन करना, धर्माध्यक्ष का स्थानारोहण कराना आदि भी धर्मसेवक के खास अधिकार थे। धर्मसेवक का ‘धर्मसेवक-पद’ ही मार थोमा मसीहियों को एकता में रखता था। सारे भारत के ‘धर्मसेवक’ के नाम से वे जाने जाते थे।