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                              ईसा ने केसरिया फिलिपी प्रदेष पहुँचकर अपने षिश्यों से पूछा, ‘‘मानव पुत्र कौन है, इस विशय में लोग क्या कहते हैं ? उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘कुछ लोग कहते हैं- योहन बपतिस्ता;  कुछ कहते हैं- एलियस; और कुछ लोग कहते हैं- येरेमियस अथवा नबियों मंे से कोई।’’ इस पर ईसा ने कहा, ‘‘और तुम क्या कहते हो कि मैं कौन हूँ ?’’ सिमोन पेत्रुस ने उत्तर दिया, ‘‘आप मसीह हैं, आप जीवन्त ईष्वर के पुत्र हैं’’। इस पर ईसा ने उनसे कहा, ‘‘सिमोन, योनस के पुत्र , तुम धन्य हो, क्यांेकि किसी निरे मनुश्य ने नहीं, बल्कि मेरे स्वर्गिक पिता ने तुम पर यह प्रकट किया है। मैं तुम से कहता हूँ कि तुम पेत्रुस, अर्थात् चट्टान हो और इस चट्टान पर मंै अपनी कलीसिया बनाऊँगा और  अधोलोक के फाटक इसके सामने टिक नहीं पायेगा। मैं तुम्हें स्वर्ग-राज्य की कुँजियाँ प्रदान करूँगा’’ (मत्ति 16: 13-19)।
                           ईसा अपनी कलीसिया की नींव डालते हैं - इसकी सूचना के रूप में हम इस घटना को देख सकते हैं। सिमोन ईष्वर की षक्ति से प्रेरित होकर स्वीकार करते हैं कि ईसा जीवन्त ईष्वर के पुत्र हैं - यह है इस  घटना की खास सच्चाई। इससे सन्तुश्ट होकर ईसा ने सिमोन को आधार षिला बना कर कलीसिया की स्थापना की। कलीसिया उन लोगों का समूह है जो यह विष्वास करते हैं और स्वीकार करते हैं कि ईसा जीवन्त ईष्वर के पुत्र एवं मसीह हैं।

     

    विष्वास ईष्वर के बुलावे का प्रत्युत्तर

                                   स्वयम् को प्रकट करने वाले ईष्वर को मानव जो प्रत्युततर देता है, वह है विष्वास। यह प्रत्युततर प्रेमपूर्ण समर्पण द्वारा प्रकट होता है। पेंतेकोस्त के दिन पवित्रात्मा को ग्रहण कर पे्ररितों के मुखिया सन्त पेत्रुस ने जो भाशण दिया वह सुनकर लोग मर्माहत हो गए और उन्होंने पेत्रुस तथा अन्य प्रेरितों से पूछा, ‘‘भाइयो, हमें क्या करना चाहिए ?’’ पेत्रुस ने उन्हें उत्तर दिया’’, आप लोग पष्चाताप करें। आप लोगों में प्रत्येक अपने-अपने पापों की क्षमा के लिए ईसा के नाम पर बपतिस्मा ग्रहण करे। इस प्रकार आप पवित्रात्मा का वरदान प्राप्त करेंगे’’ (प्रेरित चरित 2: 37-38)। पेत्रुस के निर्देषानुसार उन्होंने पष्चाताप करके ज्ञानस्नान ग्रहण किया। ईसा को प्रभु एवं मुक्तिदाता स्वीकार करते हुए वे विष्वासियों के समूह में सदस्य बन गये।
                                     कुलपति इब्राहीम तथा पवित्र कुँवारी मरियम का जीवन सच्चे विष्वास का नमूना है। सन्तान पाने की संभावना नहीं होने पर भी इब्राहीम ने ईष्वर के वचन पर आषा रखी। उन्होंने दृढ़ विष्वास किया कि ईष्वर असंभव को संभव बना देगा। माता मरियम की ज़िंदगी में भी हम यही देखते हैं। ईष्वर की षक्ति से वह ईष-पुत्र को जन्म देगी- स्वर्गदूत के इस सन्देष पर मरियम ने विष्वास किया। मानव-बुद्धि की समझ से परे होने पर भी ईष्वर ने जो भी कहे वे पूरे हो जायेंगे - यह दृढ़ धारणा है विष्वास का आधार। जैसे इब्रानियों के नाम पत्र में लिखा है, ‘‘विष्वास उन बातों की स्थिर प्रतीक्षा है, जिनकी हम आषा करते हैं और उन वस्तुओं के अस्तित्व के विशय में दृढ़ धारणा है, जिन्हें हम नहीं देखते’’ (इब्रानियों 11: 1)। ईष्वर के साथ प्रेम का एक गहरा सम्बन्ध इस विष्वास के पीछे है। प्रेम से प्रेरित होकर मन, बुद्धि एवं हृदय हम ईष्वर को समर्पित करते हैं - विष्वास में हम यही करते हैं।

    ईसा में विष्वास करने वालों का समूह

                             ईष्वर का सर्वोत्तम प्रकटीकरण है ईसा। ईष्वर ने अपने आपको ईसा द्वारा मानव को प्रकट किया। अपने जीवन, मृत्यु एवं पुनरुत्थान के जरिये ईसा ने यह प्रकट किया कि वे ईष्वर के पुत्र, प्रभु, मसीह तथा मुक्तिदाता हैं। ईसा को मृतकों में से पुनर्जीवित कराते हुए ईष्वर ने इस प्रकटीकरण को प्रमाणित किया। हृदय से यह विष्वास करना तथा मुख से स्वीकार करना कि ईसा नाजरी प्रभु, मुक्तिदाता और मसीह हैं - यह है विष्वास का प्रकटीकरण (रोमियों 10: 9)। इस प्रकार कलीसिया उन लोगों का समूह है जो ईसा में ईष्वर को देखते हुए उन्हें प्यार करते हैं एवं उन पर अपना विष्वास स्वीकार करते हैं। पिता के साथ अपने प्रेम से प्रेरित होकर ईसा ने सलीब पर पिता को पूर्ण रूप से अपने आप को समर्पण किया। इसी प्रकार ईष्वर की इच्छा के प्रति अपने आपको सम्पूर्ण रूप से समर्पित करना ही सच्चा विष्वास है। 
     

    विश्वास के पाँच घटक

    1. स्वयं को प्रकट करने वाले ईष्व को मानव का प्रत्युत्तर।
    2. ईष्वर द्वारा प्रकट की हुई बातों का पूर्ण रूप से स्वीकार।
    3. मानव की सम्पूर्ण आज्ञाकारिता एवं समर्पण।
    4. यह दृढ़ धारणा कि ईष्वर ही हमें विष्वास करने में सक्षम बनाता एवं षक्ति प्रदान करता है।
    5. यह बोध कि विष्वास मानव का प्रत्युत्तर होने के साथ-साथ ईष्वर का मुफ्त दान भी है।

     

      सुसमाचार की घोशणा विष्वास की ओर ले जाती है

                            सुसमाचार की घोशणा विष्वास की ओर आ जाने का प्रवेष द्वार है। प्रेरित सन्त पौलुस पूछते हैं, ‘यदि उन्होंने उसके विशय में कभी सुना नहीं, तो उसमें विष्वास कैसे कर सकते हैं ? यदि कोई प्रचारक न हो, तो उसके विशय में कैसे समझ सकते हैं ?और यदि वह भेजा नहीं जाए, तो कोई प्रचारक कैसे बन सकता है ?’ (रोमियों 10: 14-15)। ये पवित्र वचन यह स्पश्ट करते हैं कि विष्वास की ओर ले आने के लिए सुसमाचार की घोशणा जरूरी है।
                       ईसा ने कलीसिया को जो दौत्य सौंपा, वह भी सुसमाचार की घोशणा थी। पुनरुत्थित ईसा ने प्रेरितों से कहा, ‘‘संसार के कोने-कोने में जाकर सारी सृश्टि को सुसमाचार सुनाओ। जो विष्वास करेगा और बपतिस्मा ग्रहण करेगा, उसे मुक्ति मिलेगी’’ (मारकुस 16: 15)। ईसा से यह दौत्य स्वीकार कर उनके षिश्य पवित्र वचन घोशित करने के लिए संसार के चारों ओर निकल पड़े।  उन्होंने ईसा द्वारा प्राप्त मुक्ति का अपना अनुभव घोशित किया। उनकी घोशणा एवं जीवन का साक्ष्य अनेकों को विष्वास की ओर ले चले।

     

    मन परिवर्तन: विष्वास का जरूरी घटक

                                      वचन के श्रवण, हमें मन परिवर्तन और ईसा में विष्वास की ओर ले जाता है। ईसा ने अपना सार्वजनिक जीवन यह आह्वान करते हुए प्रारंभ किया था, ‘‘ईष्वर का राज्य निकट आ गया है। पष्चाताप करो और सुसमाचार में विष्वास करो’’ (मारकुस 1: 15)। मन का बदलाव है मन परिवर्तन। यूनानी भाशा में इसके लिए ‘मेत्तनोइया’ षब्द का प्रयोग होता है जिसका अर्थ है ‘लौट आना’। गलत राहों को तजकर सुसमाचार के पथ पर चलने का दृढ़ संकल्प है मन परिवर्तन। पवित्र वचन का श्रवण जीवन के बदलाव एवं ईसा में विष्वास का कारण बन जाना चाहिए। जो ईसा में विष्वास करते हुए उन्हें अपना मुक्तिदाता और प्रभु स्वीकार करते हैं वे मुक्ति प्राप्त करेंगे। इस प्रकार मुक्ति प्राप्त करके मुक्ति की पूर्णता की ओर बढ़ने वालों का समूह है कलीसिया।

     

    विष्वास हमें एकता में जोड़ता है

                           ख्रीस्तीय विष्वास में व्यक्तिगत पहलू के साथ-साथ सामूहिक पहलू भी है। मूलतः वह कलीसियायी एकता में सहभागिता है (कलीसिया 9)। ईष्वर के प्रकटीकरण को हमारा प्रत्युत्तर है विष्वास। यही प्रत्युत्तर एकता बनाता है। सब विष्वासी एक हृदय थे। उनके पास जो कुछ था, उसमें सबों का साझा था। वे सब मिलकर मन्दिर जाया करते थे। वे दत्तचित्त होकर प्रेरितों की षिक्षा सुना करते थे, भ्रातृत्व के निर्वाह में ईमानदार थे और प्रभुभोज तथा सामूहिक प्रार्थनाओं में नियमित रूप से षामिल हुआ करते थे (प्रेरित चरित 2: 44, 46, 42)। ये पवित्र वचन आदिम कलीसिया की जीवन षैली का चित्र है, याने विष्वास द्वारा उत्पन्न एकता का चित्र। 
                     कलीसिया की एकता में एक व्यक्ति ज्ञानस्नान द्वारा प्रवेष करता है। अन्य संस्कार हमें इस कलीसियायी समूह में बढ़ने की मदद प्रदान करते हैं। इस प्रकार कलीसिया उन विष्वासियों का समूह है जो ईष्वर के बुलावे को प्रत्युत्तर देकर, पवित्र वचन एवं सस्कारों से पोशित होकर प्रार्थना करते और आपस में बाँटते हुए बढ़ते हैं।

    ईष वचन पढ़ें और मनन करें

    प्रेरित चरित
    2: 1-47 

    कंठस्थ करें

    ‘‘यदि आप लोग मुख से स्वीकार करते हैं कि ईसा प्रभु हैं और हृदय में विष्वास करते हैं कि ईष्वर ने उन्हें 

    हम प्रार्थना करें

    हे प्रभु, आपने ज्ञानस्नान द्वारा पवित्र कलीसिया में हमें जन्म दिया; विष्वास और प्रेम रखते हुए कलीसिया की एकता में जीने की मदद हमें प्रदान कीजिए।

    मेरा निर्णय

    मैं ईसा में विष्वास प्रकट करने का कोई भी अवसर खो नहीं 

    कलीसिया के अनुसार विचार करें

    मसीह के सजीव साक्षी बनकर, खास करके विष्वास एवं प्रेम का जीवन बिताते हुए, ईष्वर की महिमा के स्तुति गीतों की बलियाँ ईष्वर को अर्पित करते हुए विष्वासीगण मसीह के पैगम्बरी दौत्य में भागीदार बनते हैं   (कलीसिया - 12)

    अपनी कलीसिया को जानें

    मार थोमा नाजरी उनको प्रेरित सन्त थोमस से प्राप्त विष्वास को उस समय की संस्कृति के अनुरूप बढ़ाते आये। भारतीय पृश्ठभूमि के अनुयोज्य जीवन षैली उन्होंने अपनायी थी। उन्होंने जो पूर्वी सिरियायी पूजन विधि अपनायी थी, वह सांस्कृतिक अनुरूपता के साथ बढ़ती रही। इस प्रकार पूर्ण रूप से भारतीय पृश्ठभूमि में बढ़ती आयी इस कलीसिया को अपनी अनेक पैतृक परम्पराएँ कालान्तर में नश्ट हो गयीं। आज हमारी कलीसिया स्वषासित कलीसिया हो गयी है और यह प्रयास कर रही है कि जो खो गयी हैं उन्हें पुनः प्राप्त करे तथा समय और संस्कृति के अनुरूप नवीनीकरण करे।