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                    इस्राएली मिस्र से रवाना हुए। गुलामी की दुःख तकलीफों में से ईष्वर के सषक्त बाहों द्वारा मुक्त होने की यादें उनके मन में उमड़ रही थीं। पास्का भोज जल्दी-जल्दी खाकर प्रतिज्ञात कनान देष की ओर वे बढ़ते रहे। सर्वषक्तिमान ने सागर के बीच में से उनके लिए मार्ग तैयार किया। दिन में बादल के खंभे के रूप में तथा रात को अग्नि स्तम्भ के रूप में ईष्वर ने उन्हें संभाला। मूसा एवं जोषुआ के नेतृत्व में इस्राएली आगे बढ़े- प्रतिज्ञात कनान देष की ओर एक तीर्थ यात्रा।

    कनान देष: ईष्वर के राज्य का प्रतिरूप

                                  ईष्वर ने इब्राहीम की सन्तानों को एक ऐसा देष देने की प्रतिज्ञा की थी, जहाँ मधु और दूध बहते हैं (उत्पत्ति 12: 7)। इस कनान देष को ही लक्ष्य बनाकर रवाना होने के लिए ईष्वर ने मूसा से कहा था। बहुत कठिन यात्रा करके ही इस्राएली इस प्रतिज्ञात देष में पहुँचे। दिन की गर्मी एवं रात की ठंड भोगते हुए पूरे चालीस साल तक उन्होंने निर्जन प्रदेष से होकर सफर किया। उनको दुष्मनों के आक्रमण, अकाल, भूख, बीमारी, मृत्यु आदि का सामना करना पड़ा। फिर भी हताष न होकर वे बढ़ते रहे। मसीह द्वारा जो चरितार्थ होने का था, उस ईष्वरीय राज्य का प्रतिरूप था कनान देष।

     
     

    कलीसिया का तीर्थयात्री स्वभाव

                                  मसीही जीवन भी एक तीर्थयात्रा है; पाप की गुलामी से मुक्त होकर तथा स्वर्गीय कनान को लक्ष्य बनाकर तीर्थ यात्रा। किसी पवित्र स्थान को लक्ष्य बनाकर ही हम तीर्थयात्रा करते हैं। यात्रा प्रायः कठिन भी होती है। परन्तु उस यात्रा के अन्त में जहाँ पहुँच जाते हैं उस पवित्र स्थान पर प्राप्त होने वाली कृपा का अनुभव अत्यन्त आनंदमय होता है। इसी प्रकार स्वर्ग की ओर की तीर्थयात्रा भी कठिन होती है। लेकिन इस यात्रा के अन्त में हमें जो स्वर्गीय सौभाग्य मिलता है वह हमें षाष्वत षान्ति प्रदान करता है। मानव कुल जिस मुक्ति की प्रतीक्षा कर रहा है उस मुक्ति का सम्पूर्ण अनुभव है वह। पाप के कारण नश्ट हुए ईष्वरीय राज्य में पुनः प्रवेष है यह। ईसा द्वारा ही यह संभव है। ईसा ने यह प्रकट किया कि पिता के यहाँ बहुत से निवास स्थान हैं तथा ईसा स्वयं आकर हमें वहाँ ले जायेंगे (योहन 14: 2-6)। इसलिए मसीही वे लोग हैं जो आने वाले स्वर्गीय सौभाग्य में आषा रखते हुए आगे बढ़ते हैं। यही आषा मसीही जीवन को सार्थक बनाती है।

     

     

    मसीही जीवन: स्वर्गीय जीवन का पूर्वानुभव

                             मसीह और हम आपसी एकता में जीवन बिताते हैं- यह है मसीही जीवन। वह ऐसी स्थिति है जहाँ हम मसीह में और मसीह हम में निवास करते हैं। इसकी सम्पूर्ण प्राप्ति है स्वर्गीय जीवन। वहाँ हम ईष्वर को आमने-सामने देखते हुए सदा उसके साथ एकता में रहते हैं। उसके फलस्वरूप हमें षाष्वत आनन्द प्राप्त होता है। जैसे प्रेरित सन्त पौलुस कहते हैं, अभी तो हमें आईने में धुँधलासा दिखाई देता है, परन्तु तब हम आमने-सामने देखेंगे; पूर्ण रूप से जान जाएँगे (1 कुरिंथि 13: 12)।
                           स्वर्गीय जीवन आत्मिक जीवन है। रक्त, मांस या अन्य किसी पार्थिव वस्तु के लिए वहाँ स्थान नहीं है। षरीर के दुर्मोह भी नहीं होंगे। इस धरती पर का मसीही जीवन स्वर्गीय जीवन का पूर्वाभास है। हमें पवित्रात्मा की प्रेरणाओं के अनुसार जीवन बिताना चाहिए। पवित्रात्मा के फल, षान्ति और आनन्द, हमें स्वर्गीय जीवन का अनुभव प्रदान करते हैं।

     

     

    मृत्यु: नित्यता का द्वार

                                 यह ईष्वर का नियम है कि मनुश्य के लिए एक बार मरना एवं मरने के बाद उसका न्याय होना है। मृत्यु को जीवन के स्वाभाविक अन्त के रूप में पुराना विधान चित्रित करता है (अयूब 5: 26)। जीवन का हनन करने वाली षक्ति के रूप में भी पुराना विधान मृत्यु को देखता है। जीवन जारी रखने वाली आत्मा का बिछुड़ जाना ही मृत्यु में होता है। आत्मा उस ईष्वर के पास लौट जाएगी जिसने उसे भेजा है (उपदेष ग्रन्थ 12: 7)।
                         नया विधान मृत्यु को नया अर्थ देता है। जिसने मृत्यु को पराजित किया उस मसीह द्वारा हमें षाष्वत जीवन प्राप्त हुआ। षारीरिक जीवन नहीं बल्कि आत्मिक जीवन यहाँ अपेक्षित है। सन्त पौलुस की नजर में मृत्यु लाभ होता है। क्योंकि जो मृत्यु के अधीन है, उस मानव प्रकृति से अनष्वर जीवन की ओर का पारगमन है वह। नष्वर में से अनष्वर की ओर तथा सांसारिक में से स्वर्गीय की ओर का पारगमन है मृत्यु।

     

     

    यक्तिगत न्याय एवं अन्तिम न्याय

                           मृत्योपरान्त जीवन के विशय में कलीसिया की षिक्षा बहुत ही स्पश्ट है। इसमें व्यक्तिगत एवं अन्तिम न्याय षामिल हैं। षरीर से आत्मा का बिछुड़ जाना: इसे मृत्यु कहते हैं। षरीर मिट्टी में मिल जाता है, लेकिन तुरन्त ही आत्मा का न्याय उसके कर्मों के अनुसार ईष्वर के सामने किया जाता है। उसे व्यक्तिगत न्याय कहते हैं।
                         अन्तिम न्याय वह है जहाँ भले और बुरे अपने कर्मों के अनुसार अलग किए जाएँगे। अन्तिम न्याय के विशय में सन्त मत्ती विषाल विवरण देते हैं। सभी राश्ट्र उसके सम्मुख एकत्र किए जायेंगे। जिस तरह चरवाहा भेड़ों से बकरियों को अलग करता, उसी तरह वह लोगों को एक-दूसरे से अलग कर देगा। तब राजा अपने दायें के लोगों से कहेंगे‘‘, मेरे पिता के कृपापात्रो, आओ और उस राज्य के अधिकारी बनो, जो संसार के प्रारंभ से तुम लोगों के लिए तैयार किया गया है’’। वे अपने बायें के लोगों से कहेंगे ‘‘षापितो, मुझसे दूर हट जाओ, उस अनन्त आग में जाओ, जो षैतान और उसके दूतों के लिए तैयार की गयी है’’ (मत्ती 25: 31-46)। अन्तिम न्याय में उन्हें महिमान्वित किया जाता है जिन्होंने भलाई की, तथा जिन्होंने बुराई की उन्हें दण्डित किया जाता है।
                           मृत्यु के बाद मन परिवर्तन असंभव है। ‘‘मृतकों को सुसमाचार सुना सकते हैं’’ यह गलतफहमी और अन्धविष्वास है। मृतकों की आत्माएँ भटकती फिरती हैं- यह भी गलत धारणा है। मरे हुए लोगों की आत्माएँ कहीं भी भटकती नहीं, किसी व्यक्ति में नहीं घुसती हैं, किसी को सतातीं भी नहीं। मरते ही सबके सब मुक्ति के, दण्ड के या षोधन के अनुभव में प्रवेष करते  हैं।

    ईष वचन पढ़ें और मनन करें

    लूकस 16: 19-31 

    कंठस्थ करें

    ‘‘मैं वहाँ जाकर तुम्हारे लिए स्थान का प्रबंधन करने के बाद फिर आऊँगा और तुम्हें अपने यहाँ ले जाऊँगा, जिससे जहाँ मैं हूँ 

    हम प्रार्थना करें

    मृत विष्वासियों की आत्माओं को ईष्वर की कृपा से स्वर्ग में प्रवेष मिले। हे षाष्वत पिता, प्रभु ईसा मसीह के अनमोल रक्त के प्रति मृत विष्वासियों 

    मेरा निर्णय

    मृत विष्वासियों के लिए मैं 

    कलीसिया के अनुसार विचार करें

    जिसकी प्रतिज्ञा की गयी है और जिसकी हम प्रतीक्षा कर रहे हैं, वह पुनरुद्धार मसीह में आरंभ होकर, पवित्रात्मा के आगमन से बढ़कर, कलीसिया में पवित्रात्मा द्वारा निरंतर जारी रहती है। इस संसार में निभाने के लिए पिता ने जो कार्य हमें सौंपा है, उसे इस कलीसिया में भावी महिमा की प्रतीक्षा में हम पूरा करते हैं और इस प्रकार हमारी आत्माओं की मुक्ति के लिए परिश्रम करते हैं, तो सांसारिक जीवन का अर्थ ही विष्वास द्वारा स्पश्ट हो जाता है (कलीसिया 48)।

    अपनी कलीसिया को जानें

    जो धर्माध्यक्ष अंकमाली महाधर्मप्रान्त का षासन करते थे वे उदंयमपेरूर महाधर्मसभा के कानून लागू करने का प्रयास करते थे। कलीसिया में फूट डालने का यह कारण बना। इस दौरान सिरिया देष के अहत्तल्ला धर्माध्यक्ष ने तीर्थयात्रियों के द्वारा धर्मसेवक को एक पत्र भेजा। पत्र का सारांष यह था कि वे (अहत्तल्ला) मलबार आकर धर्माध्यक्षीय कार्य करने के लिए सन्त पापा से नियुक्त किए गए हैं तथा धर्म सेवक उसके लिए जल्दी जरूरी इंतजाम करें। येसु समाजियों ने अहत्तल्ला को पुर्तगाल के लिए जहाज़ में रवाना किया। इसकी खबर पाकर धर्मसेवक और हजारों विषवसी कोचि के बन्दरगाह पहुँचे। उन्हें धर्माध्यक्ष से मिलने की अनुमति नहीं दी गयी। इसके अतिरिक्त जहाज़ को बन्दरगाह पहुँचाए बिना आगे निकाल दिया गया। इससे क्रुद्ध होकर धर्मसेवक और अनुयायियों ने मट्टान्चेरी में गिरजाघर की सलीब पर रस्सा बाँधकर उसे पकडते हुए यह षपथ खायी कि भविश्य में येसु-समाजियों के अधीन नहीं रहेंगे। यह है ऐतिहासिक ‘कुबड़ा-क्रूस-षपथ’। यह घटना 1653 जनवरी 3 तारीख को हुई।