•                           समारिया में नाबोत नामक एक व्यक्ति रहता था। उन दिनों आहाब समारिया का राजा था। राज-महल के समीप नाबोत की एक दाखबारी थी। राजा ने उस को अपनाना चाहा। लेकिन अपने पुरखों की विरासत राजा को देने के लिए नाबोत तैयार नहीं था। 
                          यह जानकर राजा की पत्नी ईज़ेबेल ने नाबोत पर ईश-निन्दा का झूठा अभियोग लगाया और नाबोत पत्थरों से मारा गया। राजा ने दाखबारी पर कब्जा किया। नाबोत की पुकार ईश्वर के सामने पहुँची। न्यायी ईश्वर ने नबी एलियाह को राजा के पास भेजा। नबी द्वारा ईश्वर ने कहा, “आहाब, तुमने नाबोत की हत्या करने के बाद उसकी विरासत अपने अधिकार में कर ली। जहाँ कुत्तों ने नाबोत का रक्त चाटा वहाँ वे तुम्हारा भी रक्त चाटेंगे“ (1 राजाओं 21ः19)। यह दण्ड राजा आहाब को अपने लालच के कारण प्राप्त हुआ।

     

    न्यायकर्ता ईष्वर

                       पुराने विधान की इस प्रकार की घटनाओं में हम उस ईश्वर को देखते हंै जो न्याय दिलाने में सदैव तत्पर है। जो न्याय से वंचित हैं और षोशण के षिकार हंै, उन लोगों का परिपालक और संरक्षक है प्रभु ईश्वर। न्यायी ईश्वर ने यह चाहा कि अपनी प्रिय संतान इस्राएली जनता भी धार्मिक बने। लेकिन ईश्वर ने यह देखा कि जिन्हें उसने स्वयं अपने अगाध प्रेम से जन्म दिया था उन्हीं लोगों ने स्वार्थता में लिप्त होकर धार्मिकता छोड़ दी। ‘सब कुछ मेरा होना चाहिए’,यही लालच मनुष्य को धन-मोह, दरिद्रता और युद्धों की ओर धकेलता है। इस संसार की वस्तुओं की रचना ईश्वर ने सब लोगों के लिए की थी। जब इस बात को भूलकर सब लोग स्वार्थी बने तब ही इस संसार में लोेग धनी और दरिद्र बन गए। गरीब तो अपने अधिकार से बार-बार वंचित होकर ज्यादा गरीब बन गये। अधिकार से वंचित हुए और षोशण के षिकार बने गरीबों के संरक्षण के लिए ईश्वर ने यह आदेश दिया, “न तो अपने पड़ोसी की पत्नी का, न उसके नौकर अथवा नौकरानी का, न उसके बैल अथवा गधे का - उसकी किसी भी चीज़ का लालच मत करो’’। (निर्गमन 20ः17)

    न्यायकर्ता ईष्वर

                       पुराने विधान की इस प्रकार की घटनाओं में हम उस ईश्वर को देखते हंै जो न्याय दिलाने में सदैव तत्पर है। जो न्याय से वंचित हैं और षोशण के षिकार हंै, उन लोगों का परिपालक और संरक्षक है प्रभु ईश्वर। न्यायी ईश्वर ने यह चाहा कि अपनी प्रिय संतान इस्राएली जनता भी धार्मिक बने। लेकिन ईश्वर ने यह देखा कि जिन्हें उसने स्वयं अपने अगाध प्रेम से जन्म दिया था उन्हीं लोगों ने स्वार्थता में लिप्त होकर धार्मिकता छोड़ दी। ‘सब कुछ मेरा होना चाहिए’,यही लालच मनुष्य को धन-मोह, दरिद्रता और युद्धों की ओर धकेलता है। इस संसार की वस्तुओं की रचना ईश्वर ने सब लोगों के लिए की थी। जब इस बात को भूलकर सब लोग स्वार्थी बने तब ही इस संसार में लोेग धनी और दरिद्र बन गए। गरीब तो अपने अधिकार से बार-बार वंचित होकर ज्यादा गरीब बन गये। अधिकार से वंचित हुए और षोशण के षिकार बने गरीबों के संरक्षण के लिए ईश्वर ने यह आदेश दिया, “न तो अपने पड़ोसी की पत्नी का, न उसके नौकर अथवा नौकरानी का, न उसके बैल अथवा गधे का - उसकी किसी भी चीज़ का लालच मत करो’’। (निर्गमन 20ः17)

    धन का लोभ

                       चोरी, लूट, धोखा आदि पापों का मूल-कारण है धन का लोभ; इसे मना करती है दसवीं आज्ञा-‘पराए धन का लालच मत करो’। धन अर्जित करने की इच्छा अपने आप में गलत नहीं है। लेकिन जो अपना नहीं है, दूसरों के हक का है, उस पर अन्याय रूप से लालच करना पाप ही है। “जिसे पैसा प्रिय है, वह हमेषा और पैसा चाहता है। जिसे संपत्ति प्रिय है, वह कभी अपनी आमदनी से संतुश्ट नहीं होता है” (उपदेषक 5ः9)। धन बटोरने की असीम इच्छा है धन का लोभ। इस इच्छा के साथ-साथ धन से प्राप्त अधिकार और सुख का मोह भी हो सकता है। दसवीं आज्ञा इस को मना करती है।

    धन कमाना

                               धन अर्जित करने की क्षमता मानव को ईश्वर ने ही प्रदान किया है। न्यायोचित मार्ग से धन अर्जित करके आज और कल के जीवन को सुरक्षित बनाने का अधिकार हर व्यक्ति को है। अपने परिश्रम और रोजगार से अपनी ज़रूरत के लिए पैसा कमाने का अधिकार और कर्तव्य ईश्वर द्वारा प्रदत्त है। लेकिन, अन्याय और अनावष्यक ढ़ंग से धन बटोरना घोर अपराध है।
       ईश्वर ने संसार को सब लोगों के लिए बनाया है; उसमें जब एक व्यक्ति अपने ही सुख और सुरक्षा को महत्व देकर जीवन बिताता है तो वह पाप बनता है।

    लालच

                     अपनी आवश्यकताओं और क्षमताओं से ज़्यादा वस्तु, अधिकार, पद, आदि को अपनाने की इच्छा है लालच।

    ान के लोभ के नियंत्रण में मददगार पुण्य 

    दरिद्रता की भावना

              अपनी खुशी, भौतिक वस्तुओं की समृद्धि में न पाकर, ईश्वर पर आश्रय रखते हुए जीना है सुसमाचार पर आधारित दरिद्रता। ईसा कहते हैंः “धन्य हैं वे जो अपने को दीन-हीन समझते हैं! स्वर्ग राज्य उन्हीं का है” (मत्ती 5ः3)। जो दरिद्रता की यह भावना रखते हैं वे ईश्वर की महिमा और दूसरों की भलाई के लिए अपने ईश्वरीय दानों का उपयोग करते हैं।

    मितव्यय

                           धन सम्पत्ति का सच्चा मालिक ईश्वर है। मनुश्य केवल प्रबंधक है। यह धारणा ही मनुष्य को मितव्यय की प्रेरणा देती है। अपनी ज़रूरत के अनुसार सम्पत्ति का इस्तेमाल करना और बाकी दूसरों की उन्नति के लिये व्यय करना - यही मितव्यय है। आज ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है जो अपने इच्छानुसार अपनी सम्पत्ति का व्यय करते हैं। ऐसी एक दषा ईश्वर नहीं चाहता है। धनी को यह विवेक होना चाहिए कि धन ईश्वर की देन है।

    उदारता

                    यदि संसार में केवल एक ही व्यक्ति दरिद्र हो तो इसका कारण मैं भी हँू - यह समझकर उस स्थिति को सुधारने में हमारी मदद करता है उदारता का पुण्य। अपनी सुविधा तजकर दूसरों की आवश्यकताओं को पूरा करने का सद्भाव है उदारता का नींव। जो बाँटने का मनोभाव रखता है वही उदारता से व्यवहार कर सकता है।

    तृप्ति

                   जो कुछ ईश्वर देता है, उससे संतुश्ट रहने का मनोभाव है यह। अपने जीवन की ज़रूरतों के लिए ईश्वर ने जो दान दिये हंै उनसे खुष रहना और जो अपने पास नहीं हैं उनके प्रति दुःखी न होना - यह मानसिक स्थिति है तृप्ति। ईश्वर का राज्य और उनकी धार्मिकता ही सर्वप्रथम है - यह विश्वास हमारी मदद करता है।

    हम प्रार्थना करें

    हे प्रभु, आप हमारी ज़रूरतों को पूरा करते हुए आषिष देते हैं, 
    हमें सदा तृप्त होकर जीने की हमारी मद्द कीजिए।
     

     

    हम गायें

    ईष्वर देन हैं स्वर्ग व पृथ्वी, हर किसी व्यक्ति को बाँट दिया
    मानव मार्ग है बढ़ोत्तर मार्ग, स्वेछा धूर्त से कडुवी लगेगी।
    अन्याय बिदाई से छिपाये रखना, मानव इतर को भेदों को हटाते
    इक दूसरे से भिन्न बताते, प्यार के, नीति के, भंग हैं होते।
    दूसरों का आवष्यक बिलकुल भूले, संपत्त जमा करते बिन नीति से
    देव के आश्रय में मन ही लाते, मत्र्य के मन से ही चंचल रखते।
     
     
     

    ईष-वचन पढ़ें और व्याख्या करें

    (लूकस 12ः13-21)
     
     
     

    मार्गदर्षन के लिए एक पवित्र वचन

    “धन्य हैं वे जो अपने को दीन-हीन समझते हैं! 
    स्वर्ग राज्य उन्हीं का है।” (मन्ती 5ः3)
     

    हम करें

    ूल पापों और उनके विरुद्ध पुण्य को कंठस्थ कीजिए।

     

    मूल पाप और उनके विरुद्ध पुण्य

    1. घमण्ड       ग      नम्रता
    2. धन का लोभ   ग     उदारता
    3. कामुकता       ग       शुद्धता
    4. क्रोध         ग    सहनषीलता
    5. पेटूपन          ग     आत्मसंयम
    6. ईश्र्या           ग     भाईचारा
    7. आलस्य      ग    परिश्रम
     

    मेरा निर्णय

    मैं अपनी क्षमता के अनुसार अपने पैरिष के 
    गरीब बच्चों की मदद करुँगा/गी।