•                       आदि माता-पिता के पुत्र थे काइन और हाबिल। काइन किसान था और हाबिल चरवाहा। एक बार दोनों ने ईष्वर को बलि चढ़ायी। चूँकि हाबिल ने सबसे उत्तम चीज़ों की बलि चढ़ायी थी ईश्वर उसकी बलि पर प्रसन्न हुआ। इससे काइन के मन में हाबिल के प्रति जलन उत्पन्न हुआ। जलन बढ़ते-बढ़ते भाई के प्रति घृणा और ईश्र्या में बदल गया। 
                            एक दिन काइन ने अपने भाई हाबिल से कहा, ‘‘हम टहलने चलें’’। बाहर जाने पर काइन ने हाबिल पर आक्रमण किया और उसे मार डाला। प्रभु ने काइन से कहा, ‘‘तुम्हारा भाई हाबिल कहाँ है’’ ? उसने उत्तर दिया, ‘‘मैं नहीं जानता। क्या मैं अपने भाई का रखवाला हूँ ?’’ प्रभु ने कहा, ‘‘तुमने क्या किया? तुम्हारे भाई का रक्त भूमि पर से मुझे पुकार रहा है। भूमि ने मुँह फैला कर तुम्हारे भाई का रक्त ग्रहण किया जिसे तुमने बहाया है। इसलिए तुम षापित होकर उस भूमि से निर्वासित किये जाओगे। यदि तुम उस भूमि पर खेती करोगे, तो वह कुछ भी पैदा नहीं करेगी। तुम आवारे की तरह पृथ्वी पर मारे-मारे फिरोगे’’ (उत्पत्ति 4ः8-12)। दुनिया की प्रथम हत्या का विवरण है यह। उस पर ईष्वर का दिया हुआ दण्ड भी यहाँ प्रस्तुत है।
                                मानव जीवन अमूल्य है। मानव जीवन का महत्व इस पर आधारित है कि ईश्वर ने अपनी छाया और प्रतिरूप में मनुश्य की सृश्टि की। ईष्वर है जीवन का मालिक। मनुश्य सिर्फ उसका कारिन्दा है। इसलिए जीवन का संरक्षण करना मनुश्य का महत्वपूर्ण दायित्व है। ईष्वर की आज्ञाओं में पांचवीं आज्ञा यह है कि हत्या मत करो। यह आज्ञा हमें सिखाती है कि मनुश्य को किसी की जान लेने का अधिकार नहीं है। 

     

     

    पाँचवीं आज्ञा नये विधान में

               ‘हत्या मत करो’ - इस आज्ञा के बारे में पर्वत के प्रवचन में ईसा स्पश्ट कर देते हैं। “तुम लोगों ने सुना है कि पूर्वजों से कहा गया है - हत्या मत करो। यदि कोई हत्या करे तो वह कचहरी में दण्ड के योग्य ठहराया जायेगा। परन्तु मैं तुम से यह कहता हूँ - जो अपने भाई पर क्रोध करता है वह कचहरी में दण्ड के योग्य ठहराया जायेगा। यदि वह अपने भाई से कहे, ‘रे मूर्ख!’ तो वह महासभा में दण्ड के योग्य ठहराया जायेगा और यदि वह कहे, ‘रे नास्तिक!’ तो वह नरक की आग के योग्य ठहराया जायेगा”। (मत्ती 5ः21-22)
                              ईसा ने सिखाया कि सिर्फ हत्या करना नहीं बल्कि भाई से गुस्सा करना और उससे अनुचित व्यवहार करना भी इस आज्ञा का उल्लंघन है। दूसरों को किसी भी तरह की हानि पहुँचाने का विचार और इच्छा भी पाप है। इस तरह का काम, कितना छोटा क्यों न हो, करना भी पाँचवीं आज्ञा के विरुद्ध है। ईसा जीवन का आदर और संरक्षण करने का आह्वान भी करते हंै।
                                  ईश्वर ही जीवन देता है। ईष्वर जो वातावरण और सुविधायें देते हैं उनका सही उपयोग करते हुए जीवन का परिरक्षण करना और उसको बढ़ाना हमारा कर्तव्य है। इस दुनिया में ऐसी अनेक बातें हैं जो जीवन को हानि पहुँचाती हैं। उन्हें पहचानकर और उन से बचकर जीवन का महत्व बनाये रखने का हमसे पाँचवीं आज्ञा अनुरोध करती है।
                                             जीवन के खिलाफ़ दो प्रकार के ख़तरे विद्यमान हैंः पहला, जो स्वजीवन को हानि पहुँचाता है। दूसरा, जो दूसरों के जीवन को हानि पहुँचाता है। ये दोनों पाँचवीं आज्ञा के खिलाफ़ घोर पाप हंै।
     

    पाँचवीं आज्ञा नये विधान में

               ‘हत्या मत करो’ - इस आज्ञा के बारे में पर्वत के प्रवचन में ईसा स्पश्ट कर देते हैं। “तुम लोगों ने सुना है कि पूर्वजों से कहा गया है - हत्या मत करो। यदि कोई हत्या करे तो वह कचहरी में दण्ड के योग्य ठहराया जायेगा। परन्तु मैं तुम से यह कहता हूँ - जो अपने भाई पर क्रोध करता है वह कचहरी में दण्ड के योग्य ठहराया जायेगा। यदि वह अपने भाई से कहे, ‘रे मूर्ख!’ तो वह महासभा में दण्ड के योग्य ठहराया जायेगा और यदि वह कहे, ‘रे नास्तिक!’ तो वह नरक की आग के योग्य ठहराया जायेगा”। (मत्ती 5ः21-22)
                              ईसा ने सिखाया कि सिर्फ हत्या करना नहीं बल्कि भाई से गुस्सा करना और उससे अनुचित व्यवहार करना भी इस आज्ञा का उल्लंघन है। दूसरों को किसी भी तरह की हानि पहुँचाने का विचार और इच्छा भी पाप है। इस तरह का काम, कितना छोटा क्यों न हो, करना भी पाँचवीं आज्ञा के विरुद्ध है। ईसा जीवन का आदर और संरक्षण करने का आह्वान भी करते हंै।
                                  ईश्वर ही जीवन देता है। ईष्वर जो वातावरण और सुविधायें देते हैं उनका सही उपयोग करते हुए जीवन का परिरक्षण करना और उसको बढ़ाना हमारा कर्तव्य है। इस दुनिया में ऐसी अनेक बातें हैं जो जीवन को हानि पहुँचाती हैं। उन्हें पहचानकर और उन से बचकर जीवन का महत्व बनाये रखने का हमसे पाँचवीं आज्ञा अनुरोध करती है।
                                             जीवन के खिलाफ़ दो प्रकार के ख़तरे विद्यमान हैंः पहला, जो स्वजीवन को हानि पहुँचाता है। दूसरा, जो दूसरों के जीवन को हानि पहुँचाता है। ये दोनों पाँचवीं आज्ञा के खिलाफ़ घोर पाप हंै।

     

     

    मानव जीवन के खिलाफ़ बुराइयाँ

    हत्या

                          हत्या उस मानव वध को कहते हंै जो घृणा के कारण या गलत उद्देष्य से जान बूझकर की जाती है। यह एक निश्ठुर दुश्कर्म है जो दूसरों का जीवन नश्ट करता है। जो जीवन के अधिकारी एवं दाता है उस ईष्वर के अधिकार का उल्लंघन है हत्या।

    आत्महत्या

                    स्वजीवन का जान-बूझकर विनाष करना है आत्महत्या। इसके द्वारा जीवन पर ईष्वर के परम अधिकार का विरोध किया जाता है। अपने जीवन का पालन पोशण करने का है इनसान का अधिकार; उसका नाष करने का नहीं। 

    दयावध

                  चाहे लक्ष्य या मार्ग कोई भी हो, विकलांगों, रोगियों एंव मरणासन्नों का जीवन समाप्त करना दयावध है। (सी.सी.सी. 2277)। सुखमृत्यु के नाम से भी यह जाना जाता है। कानून अनुमति दे या न दे, दयावध क्रूर-हत्या के समान है। यह पाँचवीं आज्ञा के खिलाफ़ है।

    भ्रूणहत्या

                      गर्भस्थ षिषु या भ्रूण की हत्या करना है भ्रूणहत्या। मानव जीवन के खिलाफ़ के आक्रमणांे में सबसे नीच और अमानवीय है भू्रणहत्या। माता के गर्भ में ईश्वर ही इनसान का रूप गढ़ता है (स्तोत्र ग्रन्थ 139ः13)। इसलिए गर्भस्थ का नाश करना हत्या है और जीवनदाता ईष्वर के विरुद्ध चुनौती भी है।

    आतंकवाद

                      किसी समूह या संघ के आतंक के फलस्वरूप मानव जीवन का विनाष होता है। किसी विषेश सिद्धान्त या विष्वास के नाम पर होते आतंक या क्रूरता द्वारा जीवन का विनाष करना पाँचवीं आज्ञा का उल्लंघन है। षांति से जीने का अधिकार वह नश्ट कर देता है। किसी भी प्रकार का आक्रमण हो, वह बुराई है, नहीं करना चाहिए। 

    नषीले पदार्थों का उपयोग

                   षराब, नषीली दवाइयाँ, पान-पराग आदि नषीले पदार्थांें का सेवन जीवन के लिए ख़तरा है। ये जीवन को अप्रत्यक्ष रूप से और धीरे-धीरे नश्ट कर देते हंै। नषीले पदार्थों का व्यसन जीवन के हर क्षेत्र में दुश्प्रभाव डालता है। उनके कारण जीवन के पालन-पोशण में बाधा हो जाती है। नषीले पदार्थों का सेवन एक प्रकार से धीमी आत्महत्या के बराबर है।
     

    मानव जीवन के खिलाफ़ बुराइयाँ

    हत्या

                          हत्या उस मानव वध को कहते हंै जो घृणा के कारण या गलत उद्देष्य से जान बूझकर की जाती है। यह एक निश्ठुर दुश्कर्म है जो दूसरों का जीवन नश्ट करता है। जो जीवन के अधिकारी एवं दाता है उस ईष्वर के अधिकार का उल्लंघन है हत्या।

    आत्महत्या

                    स्वजीवन का जान-बूझकर विनाष करना है आत्महत्या। इसके द्वारा जीवन पर ईष्वर के परम अधिकार का विरोध किया जाता है। अपने जीवन का पालन पोशण करने का है इनसान का अधिकार; उसका नाष करने का नहीं। 

    दयावध

                  चाहे लक्ष्य या मार्ग कोई भी हो, विकलांगों, रोगियों एंव मरणासन्नों का जीवन समाप्त करना दयावध है। (सी.सी.सी. 2277)। सुखमृत्यु के नाम से भी यह जाना जाता है। कानून अनुमति दे या न दे, दयावध क्रूर-हत्या के समान है। यह पाँचवीं आज्ञा के खिलाफ़ है।

    भ्रूणहत्या

                      गर्भस्थ षिषु या भ्रूण की हत्या करना है भ्रूणहत्या। मानव जीवन के खिलाफ़ के आक्रमणांे में सबसे नीच और अमानवीय है भू्रणहत्या। माता के गर्भ में ईश्वर ही इनसान का रूप गढ़ता है (स्तोत्र ग्रन्थ 139ः13)। इसलिए गर्भस्थ का नाश करना हत्या है और जीवनदाता ईष्वर के विरुद्ध चुनौती भी है।

    आतंकवाद

                      किसी समूह या संघ के आतंक के फलस्वरूप मानव जीवन का विनाष होता है। किसी विषेश सिद्धान्त या विष्वास के नाम पर होते आतंक या क्रूरता द्वारा जीवन का विनाष करना पाँचवीं आज्ञा का उल्लंघन है। षांति से जीने का अधिकार वह नश्ट कर देता है। किसी भी प्रकार का आक्रमण हो, वह बुराई है, नहीं करना चाहिए। 

    नषीले पदार्थों का उपयोग

                   षराब, नषीली दवाइयाँ, पान-पराग आदि नषीले पदार्थांें का सेवन जीवन के लिए ख़तरा है। ये जीवन को अप्रत्यक्ष रूप से और धीरे-धीरे नश्ट कर देते हंै। नषीले पदार्थों का व्यसन जीवन के हर क्षेत्र में दुश्प्रभाव डालता है। उनके कारण जीवन के पालन-पोशण में बाधा हो जाती है। नषीले पदार्थों का सेवन एक प्रकार से धीमी आत्महत्या के बराबर है।

    जीवन का संरक्षण

                          पाँचवीं आज्ञा का लक्ष्य सिर्फ मानव जीवन का विनाष न करने का नहीं है; परन्तु हर प्रकार से जीवन का संरक्षण करने का भी यह आज्ञा आह्वान करती है। स्वजीवन के संरक्षण के लिए कुछ कर्तव्यों को भी यह आज्ञा हमारे सामने रखती है।

    स्वास्थ्य का संरक्षण

                        मनुश्य के षरीर और आत्मा होते हंै। आत्मा और षरीर के स्वास्थ्य का संरक्षण मनुश्य का कर्तव्य है। स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिए उचित चिकित्सा सहायता और भोजन, शुद्ध वातावरण आदि सब के लिए उपलब्ध होना चाहिए। मनुश्य को अपने और दूसरों के स्वास्थ्य का संरक्षण करने का दायित्व है। खाद्य उपजों के उत्पादन में जहरीले पदार्थों का इस्तेमाल करना और खाद्य वस्तुओं में मिलावट करना गलत है। 

    षांति का संरक्षण

                    युद्धों और दंगों के बढ़ते युग में षांति के संरक्षण के लिए जो गतिविधियाँ हैं, वे बहुत महत्वपूर्ण हैं। षांति को बनाये रखने का परिश्रम ही जीवन का आदर करने का भाग है। षांति से जीने का माहौल बनाये रखना व्यक्तियों, समूहों और राश्ट्रों का दायित्व होता है।

    प्रकृति का संरक्षण

                                       मनुष्य जिस वातावरण में जी रहा है उसके प्रति उसे विषेश जिम्मेदारी होती है। ईष्वर द्वारा प्रदत्त प्रकृति भावी पीढ़ियों के लिए भी है। यदि हम प्रकृति का अस्तित्व दृढ़ बनायेंगे तो ही आगामी समय में यहांँ जीवन बढ़ सकता है। इसलिए प्रकृति का सही ढ़ंग से इस्तेमाल करना और संरक्षण करना हमारा दायित्व है। पर्यावरण का प्रदूशण और प्रकृति का षोशण जीवन के खिलाफ़ पाप है।
                                     ’हत्या मत करो’ - ईश्वर की यह आज्ञा हमें सिर्फ जीवन के खिलाफ़ कुछ नहीं करने का नहीं है, परन्तु यह आज्ञा जीवन का संरक्षण करने और उसको बढ़ाने की हमारी जिम्मेदारी की भी याद दिलाती है। हम ईसाइयों का दायित्व है कि हम यह सत्य पहचानें कि जीवन ईष्वर की देन है और हम इस जीवन का पालन-पोशण करें। जीवन के पालन-पोशण में हम सदा सतर्क रहें। इस प्रकार हम अनन्त जीवन प्राप्त करें।
     

    हम प्रार्थना करें

    हे जीवनदाता ईष्वर, जीवन के अमूल्य दान के लिए 
    हम तुझे धन्यवाद देते हैं। उस दान का आदर और 
    संरक्षण करने का अनुग्रह हमें प्रदान कीजिए।
     

    हम गायें

    ईष ने दे दिया जीवनदान, ईष कृपा के दानों मान
    ईष की सृश्टि हम मिल के, ईष को धन्यवाद जीव परीक्षा।
    ईष्वर सृश्टि है मानव दान, कार्य स्थिरता नार योजना
    रणभीति छोड़ें, दूत बने, परिस्थिति बने ही संरक्षण।
    जीवन की हत्या कृतियों को, छोड़ंेगे नित्य रोज लेंगे
    हत्या मत करो इति कल्पना, जीवन दाता ईष्वर प्राप्ति।
     

    ईष-वचन पढ़ें और वर्णन करें

    उत्पत्ति ग्रन्थ 4ः1-12
     
    मार्गदर्षन के लिए एक पवित्र वचन
    ईष्वर ने मनुश्य को अपने प्रतिरूप बनाया; 
    उसने उसे ईष्वर का प्रतिरूप बनाया। 
    (उत्पत्ति ग्रन्थ 1ः27)
     

    हम करें

    एक रोगी से मिलकर उसे साँंत्वना दीजिए।
     
     

    मेरा निर्णय

     मैं किसी भी नषीले पदार्थ का 
    सेवन नहीं करूँगा/गी।