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                  न्याय के दिन में प्रभु ईसा सतकर्मियों को अपने दायें और कुकर्मियों को अपने बायें खड़ा करेंगे। वे अपने दायें के लोगों से कहेंगे: ‘‘मेरे पिता के कृपापात्रो, आओ और उस राज्य के अधिकारी बनो जो संसार के प्रारंभ से तुम लोगों के लिए तैयार किया गया है। क्योंकि मैं भूखा था और तुम ने मुझे खिलाया; मैं प्यासा था और तुम ने मुझे पिलाया, मैं परदेषी था और तुम ने मुझे अपने यहाँ ठहराया; मैं नंगा था और तुम ने मुझे पहनाया; मैं बीमार था और तुम मुझ से भेंट करने आए; मैं बन्दी था और तुम मुझसे मिलने आए कृ तुम ने मेरे इन भाइयों में से किसी एक के लिए, चाहे वह कितना छोटा क्यों न हो, जो कुछ किया, वह तुम ने मेरे लिए ही किया’’ (मत्ती 25: 34-36)। यह वचन लोकोपकारी कार्य करने का केवल निमंत्रण नहीं, बल्कि गरीबों में ईसा को ही देख कर उन्हें प्यार करने का सषक्त प्रबोधन है।

    कर्मयुक्त विष्वास

     

                    ईसा पापियों, रोगियों एवं पीडितों की खोज में आ कर उनकी भलाई करते हुए गाँव-गाँव में एवं नगरों में घूमते थे। एसे लोगों में ईसा का ही मुँह देख कर, उनकी आत्मिक एवं भौतिक उन्नति के लिए तथा ईसा का मुँह संसार को दिखाने केलिए कलीसिया जो प्रयास करती है, उसे लोकोपकारी कार्य कहते हैं। लोकोपकारी कार्य नहीं करना उन लोगों के लिए असंभव है जिन्होंने सुसमाचार का सन्देष सही ठंग से ग्रहण किया है। क्योंकि ईष्वर का वचन उसके लिए हमें बाध्य करता है।

                    प्रेरित संत पौलुस कहते हैं, ‘‘महत्व विष्वास का है जो प्रेम से अनुप्रेरित है‘‘ (गलातियों 5: 6)। ईष्वर के वचन का सारतत्व प्रेम है। जो प्रेम करता है वह दूसरों की ज़रूरत को अपनी ही ज़्ारूरत समझेगा। दूसरों की पीड़ाओं को वह अनदेखी नहीं कर सकता। ‘‘कर्मों के अभाव में विष्वास पूर्ण रूप से निर्जीव है’’ (याकूब 2: 17)। संत याकूब का यह उपदेष हमें विष्वास की ओर ले चलता है जो कर्मों पर आधारित है। इसलिए हमें समझना चाहिए कि विष्वास के प्रतिबिंबन हैं लोकोपकारी कार्य।              

                                    लोकोपकारी कार्य केवल इसमें निहित नहीं है कि हम फिलहाल की आवष्यकताओं की पूर्ति के लिए कुछ धन या कोई वस्तु देते हैं। वह है किसी व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए निरंतर समर्पण। इसके लिए उत्तम उदाहरण है संत विन्सेन्ट डी पाॅल जिन्होंने गरीबों के उद्धार के लिए प्रयत्न किया और फादर डामियन जिन्होंने मोलोको टापु में निर्वासित कोढ़ियों की दुःख तकलीफ के बारे में सुन कर उनके उद्धार के लिए अपने आप को समर्पित किया और अंत में स्वयं कुश्ठ रोगी हो कर मृत्यु को अपनाया। कलकत्ता की मदर तेरेसा भी लोकोपकारी कार्यों का सर्वोत्तम उदाहरण हैं जिन्होंने कलकता की गलियों में उपेक्षित अनाथों एवं मरणासन्न लोगों को अपने आश्रम में ले आ कर उनकी सेवा षुश्रूशा की। आज भी कलीसिया में अनेक लोग हैं जो अपनी सुख-सुविधाएँ तज कर समाज़ के पिछडे लोगों की उन्नति के लिए दिन रात प्रयत्न करते हैं।

     

    कलीसिया के लोकोपकारी कार्यों का आधार

     

                    कलीसिया के लोकोपकारी कार्यों का आधार ईसा के दिये हुए उदाहरण एवं प्रबोधन हैं। ईसा अपने सार्वजनिक जीवनकाल में पापियों, रोगियों एवं दुःखियों के साथ विषेश करुणा दिखाते थे। रोगियों को स्वास्थ्य, पापियों को पापमोचन, दुःखियों को सांत्वना प्रदान करते हुए ईसा सब के लिए सब कुछ बन गये। उन्होंने उन सब को अपने पास बुलाया जो थके-मांदे और बोझ से दबे हुए थे (मत्ती 11: 28)। भले समारी के दृश्टांत द्वारा ईसा ने हमें सिखाया कि सच्चा पड़ोसी वह है जो ज़रूरतमंद लोगों की सहायता करता है और वे हम से आग्रह करते हैं कि हम भी ऐसा करें (लूकस 10: 25-37)। अमीर और लाज़्ारूस के दृश्टांत द्वारा वे हमें सिखाते हैं कि ज़रूरतमंद लोगों को अनदेखी करना नरक प्राप्त करने योग्य पाप है। यह अनदेखी ईष्वर से प्राप्त प्रेम के आदेश के खिलाफ है।

     

    हम करें 1

     

    संत याकूब के पत्र का दूसरा अध्याय पढ़ कर उन वाक्यों को ढँूढ़ निकालिए और लिखिये जिन में दूसरों की मदद करने के विशय में चर्चा है।

                 

                    प्रेरितों ने भी आदिम कलीसिया को लोकोपकारी कार्य करना सिखाया था। पवित्र वचन साक्ष्य देता है: ‘‘उन में कोई कंगाल नहीं था; क्योंकि जिनके पास खेत या मकान थे, वे उन्हें बेच देते और कीमत ला कर प्रेरितों के चरणों में अर्पित करते थे। प्रत्येक को उसकी आवष्यकता के अनुसार बाँटा जाता था” (प्रेरित चरित 4: 34-35)। आदिम कलीसिया उन समूहों की मदद करने में विषेश ध्यान देती थी जो गरीबी के षिकार थे (प्रेरित चरित 11: 28-30)।

     

    कलीसिया का प्रबोधन

     

                    कलीसिया के अनेक प्रेरितिक प्रबोधन हैं जिन में सामाजिक न्याय और लोकोपकारी कार्यों में कलीसिया की भागीदारी के विशय में चर्चा है। त्मतनउ छवअंतनउ (नये कायों का), माता और शिक्षिका, पृथ्वी पर षांति, मानव प्रगति, आदि कलीसिया के सामाजिक प्रबोधनों में इसकी चर्चा है। इन प्रबोधनों द्वारा कलीसिया सत्य, न्याय, प्यार एवं व्यक्ति की आज़ादी पर आधारित मानव प्रगति के प्रति प्रयास करने के लिए आह्वान करता है। संत बेसिल, संत क्रिसोस्तोम आदि कलीसिया के आचार्यगण लोकोपकारी कार्यों के महत्व के विशय पर हमें षिक्षा देते हैं। संत बेसिल सिखाते हैं, ”अलमारी में रखा हुआ भोजन भूखे का है, वस्त्र नंगे का है और जूते नंगे पाॅव वाले के हैं”। यह उपदेष हमें याद दिलाता है कि जो  कुछ ज़रूरत से ज़्यादा है, चाहे कल के लिए रखा हुआ क्यों न हो, उसे ज़्ारूरतमंद लोगों के बीच बाँटना है। संत क्रिसोस्तोम पढ़ाते हैं: ‘‘जब आप भवन का निर्माण करते हैं, एक कमरा ईसा के लिए अलग रखना चाहिये। उसे उन लोगों के लिए खुला रखें जो राहगीर एवं भवन रहित हैं”। ज़रूरतमंद लोगों की मदद करने में हमें जो होना चाहिये उस ख्रीस्तीय मनोभाव की ओर यह इषारा करता है।

    कलीसिया के लोकोपकारी कार्यों के क्षेत्र

                   

                    अनेक क्षेत्रों में कलीसिया लोकोपकारी कार्य करती है -

     

    1.            अनाथ तथा परिवार से तिरस्कृत बच्चे और बुजुर्ग।

    2.            वृद्ध जन जिन की सहायता न बेटे-बेटियाँ, न रिष्तेदार करते हैं, तथा उनके  सान्निध्य का भरोसा तक नहीं है।

    3.            रोगी एवं मरणासन्न लोग।

    4.            विकलांग लोग।

    5.            कम क्षमता के कारण तिरस्कृत एवं निराश्रित लोग।

    6.            जिन का मानसिक स्वास्थ कमज़ोर है।

    7.            औरतें एवं बच्चे जो षोशण के षिकार होते हैं।

    8.            एच.आई.वी. एवं कैंसर से पीड़ित लोग।

    9.            गरीब एवं भवन रहित लोग।

    10.          जो समाज में तिरस्कृत एवं अन्याय के षिकार हैं।

    11.          युद्ध, प्राकृतिक विपत्ति आदि से पीड़ित लोग।

    12.          बंदी, बंदीगृह से मुक्त हुए लोग और उन के  आश्रित।

    हम करें 2

     

                   आप की निकवटर्ती एक लोकोपकारी संस्था का निरीक्षण करके वहाँ की सेवा कार्यों के बारे में एक रिपोर्ट तैयार कीजिए।

     

                    इस प्रकार की परिस्थितियों में कलीसिया सुसमाचार -सन्देष का दीप लेते हुए लोकोपकारी कार्यों में लग जाती है। दुःखित एवं पीड़ित लोगों के लिए कलीसिया में भिन्न भिन्न प्रकार की संस्थाएँ एवं व्यवस्थाएँ हैं। वे सेवा के प्रकाष स्तम्भ के रूप में  विद्यमान हैं। वृद्धाश्रम, अनाथालय, मानसिक रोगियों के उपचार एवं पुनर्वास के लिए केन्द्र, निराश्रितों के भवन, अस्पताल, मानसिक एवं शारीरिक विकलांग लोगों के उपचार एवं प्रषिक्षण के लिए केन्द्र आदि उन में कुछ हैं। इनके द्वारा जाति, धर्म, वर्ग, लिंग, धन-सम्पत्ति आदि के भेदभाव के बिना सब को स्वीकार करके, सबों में ईसा को देखते हुए उन की सेवा षुश्रूशा करने में कलीसिया ध्यान देती है।

                    कलीसिया के लोकोपकारी कार्यों में सहयोग करते हुए हम भी इन क्षेत्रों में सेवा कर सकते हैं। छोटे-छोटे त्याग द्वारा प्राप्त रकम देते हुए और आतुरालय आदि अन्य संस्थाओं में जा कर दीन दुःखियों से भेंट करके उनके लिए प्रार्थना करते हुए हम भी लोकोपकारी कार्यों में भाग लें।

     

    ईष वचन पढ़ें और मनन करें

       (मारकुस 16: 14-17)

     

    कंठस्थ करें

                    ‘‘बच्चो, हम वचन से नहीं, कर्म से, मुख से नहीं, हृदय से एक दूसरे को प्यार करें’’

    (1 योहन 3: 18)।

     

    हम प्रार्थना करें

    हे करूणामय ईसा, रोगियों, वृद्धजनों, पीडितों एवं विकलांग लोगों में आप को देखते हुए उनकी सहायता करने की षक्ति हमें प्रदान कीजिये।

     

    मेरा निर्णय

    ठाठदार वस्तुओं को तजकर उन के धन से मैं गरीबों की मदद करूँगा/गी।

     

    कलीसिया के साथ विचार करें

    ‘‘समय बीत जाने और कलीसिया का विकास होने पर, लोकोपकारी कार्य कलीसिया के महत्वपूर्ण कार्यों में एक के रूप में स्वीकृत एवं प्रमाणित हो गया। संस्कारों का अनुश्ठान एवं वचन की घोशणा के साथ साथ लोकोपकारी कार्य भी चलता आया। विधवाओं, अनाथों, कैदियों, रोगियों एवं सब प्रकार के ज़रूरतमंद लोगों के प्रति प्रेम भी संस्कारों के अनुश्ठान एवं सुसमाचार की घोशणा के समान कलीसिया के लिए महत्वपूर्ण बन गया। जिस प्रकार कलीसिया संस्कार एवं वचन का तिरस्कार नहीं कर सकती, उसी प्रकार वह लोकोपकारी कार्य का भी तिरस्कार नहीं कर सकती’’

    (ईष्वर प्रेम है DCE 22)।