•   एक बार फरीसी ईसा के पास आये और उनकी परीक्षा लेते हुए उन्होंने यह प्रष्न किया, ‘‘क्या किसी भी कारण से अपनी पत्नी का परित्याग करना उचित है ?’’ ईसा ने उत्तर दिया, ‘‘क्या तुम लोगों ने यह नहीं पढ़ा कि सृश्टिकर्ता ने प्रारंभ ही से उन्हें नर-नारी बनाया और कहा कि इस कारण पुरुश अपने माता-पिता को छोड़ेगा और अपनी पत्नी के साथ रहेगा और वे दोनों एक षरीर हो जायेंगे ? इस तरह अब वे दो नहीं बल्कि एक षरीर हैं। इसलिए जिसे ईष्वर ने जोड़ा है उसे मनुश्य अलग नहीं करे’’ (मत्ती 19: 3-6

                                ईष्वर ने, जो प्रेम ही है, मनुश्य को अपना प्रतिरूप बनाया, वह ईष्वर के सदृष था। प्यार देने तथा प्यार पाने की क्षमता ईष्वर ने उसे प्रदान की। ईष्वर ने देखा कि अदन वाटिका की समृद्धियों के बीच में भी अकेला रहना मनुश्य के लिए अच्छा नहीं। इसीलिए ईष्वर ने उसे एक सहयोगी प्रदान किया, जिससे वे दोनों एक-दूसरे को प्यार करें। आदम हेवा से मिले और वे दोनों एक षरीर हो गए (उत्पत्ति 2: 24)। इस प्रकार ईष्वर ने उनको इसलिए जोड़ा था कि वे ईष्वर के सृश्टिकर्म में भागीदार बनें। आदि माता-पिताओं को आषीर्वाद देते हुए ईष्वर ने कहा, ‘‘फलो-फूलो, पृथ्वी पर फैल जाओ और उसे अपने अधीन कर लो’’ (उत्पत्ति 1: 28)।

    विवाह - प्रेम का क़रार

                        विवाह प्रेम का क़रार है। दम्पतियों का संपूर्ण आत्मसमर्पण का क़रार ही विवाह में होता है। विवाह संस्कार द्वारा इस क़रार को ईष्वर मान्यता का मोहर लगाता है। समूह भी इसे मान्यता देता है। यह क़रार ईष्वर और मनुश्य के आपसी क़रार का भाग बन जाता है (कैथलिक कलीसिया का विष्वास संक्षेप 1639)। 
                                  विवाह में पत्नी पति को और पति पत्नी को आपस में पूर्ण रूप से देते हैं। ‘‘वे दोनों एक षरीर हो जायेंगे’’ - इस कथन से पति और पत्नी के आपसी संबन्ध की अटूट और दृढ़ एकता को ईसा सूचित करते हैं। इसीलिए दंपतियों के आपसी आंतरिक प्यार, स्वयं दान और एकता का जीवन है दांपत्य जीवन। ईष्वर चाहता है कि पवित्र अनुराग एवं अभेद्य प्यार के द्वारा वैवाहिक संबन्ध को पोशित एवं फलदायक बनाना चाहिए। 
     
     

    गतिविधि

    आपने विवाहोत्सवों में भाग लिया होगा। उनका स्मरण करते हुए विवाह संस्कार के अनुश्ठानों को क्रम से लिखिए। विवाह संस्कार में प्रयुक्त पवित्र ग्रन्थ भागों की याद करके उनके सारांष भी लिखिए।
     

    विवाह एक संस्कार

                             विवाह एक ईष्वरीय क़रार है; ईसा ने उसे एक संस्कार बनाया। विवाह एक संस्कार है जो दंपतियों को जरूरी कृपा प्रदान करता है जिससे वे आपस में असीम प्यार रखते हुए ईष्वर की सृश्टि-योजना में भागीदार बनें तथा वैवाहिक संबन्ध से उत्पन्न संतानों का उस ढंग से पालन-पोशण करें जो ईष्वर को प्रिय हो। 
                                    कलीसिया का आधिकारिक प्रतिनिधि और विवाह संस्कार का अनुश्ठाता है पुरोहित; अपने सामने दो गवाहों की उपस्थिति में पति-पत्नियों के विवाह क़रार को स्वीकार करते हुए पुरोहित आषीर्वाद देता है; यह है विवाह संस्कार का सबसे महत्वपूर्ण अनुश्ठान। इस क़रार को मज़बूत बनाते हुए पवित्र ग्रन्थ को साक्षी बनाकर पति और पत्नी प्रतिज्ञा करते हैं। इसके अलावा वर और वधु का आपस में हाथ मिलाना, मंगलसूत्र बाँधना, एक-दूसरे को अंगूठियाँ पहनाना, विवाह परिधान पहनाना, हार पहनाना आदि विवाह संस्कार के अनुश्ठान को अर्थपुश्टि देते हैं। ये सब पति-पत्नियों के परस्पर स्वयंदान, समर्पण और संरक्षण के प्रतीक हैं। 
                                       स्त्री और पुरुश, जिन्होंने ज्ञानस्नान द्वारा कृपा में जन्म लेकर मसीह के साथ अटूट संबन्ध स्थापित किया है, विवाह संस्कार स्वीकार करने से ईष्वर की कृपा में बढ़ते हैं। जब वे विवाह संस्कार स्वीकार करते हैं, तब ईसा दंपतियों को आषीर्वाद तथा अनुग्रह देते हुए उन्हें अटूट और गहरे संबन्ध में जोड़कर वैवाहिक जीवन के दायित्वों को निभाने की कृपा प्रदान करते हैं। 

    विवाह की अभेद्यता एवं वफादारी

                      विवाह संस्कार जीवन के आखिरी क्षण तक बना रहता है। विवाह संस्कार में दंपति यह प्रतिज्ञा करते हैं: ‘आज से मरण तक, सुख और दुख में, अमीरी और गरीबी में, तंदुरूस्ती और बीमारी में परस्पर प्रेम और विष्वस्तता के साथ एक मन होकर जीवन बिताने की हम प्रतिज्ञा करते हैं।’ 
                           दंपतियों का प्रेम, सहज ही उनके आपसी संबन्ध की एकता तथा अभेद्यता माँगता है (कैथलिक कलीसिया का विष्वास संक्षेप 1644)। जिसे ईष्वर ने जोड़ा है उसे मनुश्य अलग नहीं कर सकता (मत्ती 19: 6)। कलीसिया सिखाती है कि परस्पर संपूर्ण रूप से स्वयंदान करने की विवाह-प्रतिज्ञा के अनुसार निरंतर एकता में बढ़ते रहना चाहिए (पारिवारिक एकता 19)। 
                     दंपतियों की आपसी वफादारी भी वैवाहिक संबन्ध की आधारषिला है। वफादारी दंपतियों के आपसी स्वयंदान से अवष्य निकलती है। दो व्यक्तियों के आपसी स्वयंदान से उत्पन्न सुदृढ़ वैवाहिक संबन्ध तथा संतानों की भलाई के लिए दंपतियों की संपूर्ण वफादारी और अटूट एकता अनिवार्य हैं। विधान के साथ ईष्वर की वफादारी तथा कलीसिया के साथ मसीह की वफादारी - ये दोनों हैं वैवाहिक संबन्ध की वफादारी का आधार (कैथलिक कलीसिया का विष्वास संक्षेप 1646-47)। 
                          अलग हुए बिना, वफादारी के साथ, मृत्यु तक, एक साथ जीने की कृपा विवाह के अवसर पर दी जाती है। मसीह में प्रारंभ किया हुआ वैवाहिक संबन्ध जीवन भर अविकल रखने में यह कृपा दंपतियों को षक्ति प्रदान करती है। जैसे-जैसे वे प्यार, एकता और वैवाहिक वफादारी में बढ़ते जाते हैं वैसे ही कृपा में भी धनी बनते हैं। मसीह के प्रेम में एक बनकर वे अपने आप को ईष्वर को समर्पित करते है। उनका आपसी प्यार और समर्पण उनके लिए ईष्वर की ओर बढ़ने का मार्ग बन जाता हैं। 

    प्यार करने और जीवन देने

                                  विवाह संस्कार के लक्ष्य दो हैं: दंपतियों का आपसी प्यार तथा संतानों को जन्म देना। निर्मल एवं बिना षर्त का प्यार एक-दूसरे को देने के लिए दंपति बाध्य हैं। कलीसिया के साथ ईसा का प्रेम और ईसा के साथ कलीसिया की अधीनता - ये दोनों, दंपतियों के लिए उदाहरण हैं। प्रेरित संत पौलुस कहते हैं, ‘‘पतियो, अपनी पत्नी को उसी तरह प्यार करो जिस तरह मसीह ने कलीसिया को प्यार किया। उन्होंने उसके लिए अपने को अर्पित किया’’ (एफेसियों 5: 25)। ‘‘जिस तरह कलीसिया ईसा मसीह के अधीन रहती है उसी तरह पत्नी को भी सब बातों में अपने पति के अधीन रहना चाहिए’’ (एफेसियों 5: 24)।
                                  दंपतियों के आपसी प्यार और समर्पण सुदृढ़ बनाने की योजना ईष्वर ने मनुश्य की सृश्टि के समय से ही बनायी थी। वे एक दूसरे का पूरक बनें, इसलिए ईष्वर ने उन्हें पुरुश और स्त्री के रूप में बनाया (उत्पत्ति 1: 27)। आपस में आकर्शित होने, पसंद करने, प्यार करने और एक हो जाने के लिए ईष्वर ने उन्हें लैंगिकता का महादान दिया था। यह दान वैवाहिक जीवन के लिए है। वैवाहिक संबन्ध के बाहर का कोई भी लैंगिक संबन्ध मना है, पाप भी है।
                               पति और पत्नी प्यार में एक होकर ईष्वर के हितानुसार सृश्टिकर्म में भागीदार बनते और ईष्वर के लिए संतानों को जन्म देते हैं। दंपतियों के अलौकिक प्यार के लिए ईष्वर का बहुमूल्य तोहफा हैं संतानें। आपसी प्यार, वफादारी और पवित्रता में बढ़ने और संतानों का, जो वैवाहिक संबन्ध के फल हैं, ईष्वर के हितानुसार, पालन-पोशण करने के लिए विवाह संस्कार दंपतियों को बाध्य करता है। दूसरी वैटिकन महासभा सिखाती है: ‘‘विवाह और दांपत्य प्रेम का उद्देष्य सहज ही संतानों को जन्म देना और उनका पालन-पोशण करना है। संतानें हैं विवाह के श्रेश्ठतम फल। संतानों को जन्म देना और उनका पालन-पोशण करना - इन्हें दंपति अपना विषेश दायित्व मानें’’ (कलीसिया आधुनिक दुनिया में 50)। इसके लिए जरूरी कृपाएँ विवाह संस्कार द्वारा दंपतियों को मिलती हैं।

    ईषवचन पढ़ें और मनन करें

    (एफेसियों 5: 22-33)

    कंठस्थ करें

    ‘‘आप लोगों में हर एक अपनी पत्नी को अपने समान प्यार करे और पत्नी अपने पति का आदर करे’’ (एफेसियों 5: 33)।

    हम प्रार्थना करें

    हे मसीह, आपने कलीसिया को प्यार किया और निर्मल वधु बनाने के लिए उसके प्रति अपने आप को अर्पित किया; हमारे परिवारों को ईष्वरीय प्रेम से भर दीजिए।
     

    कलीसिया के आचार्य कहते हैं 

    पति और पत्नी आपसी स्वयंदान द्वारा, जो वे ही कर सकते हैं, एक हो जाते हैं। यह इसलिए है कि वे संतानों को जन्म दें, उनका पालन-पोशण करें और ईष्वर के सहयोगी बनें। इसके द्वारा वे पूर्णता तक पहुँचने में एक दूसरे की मदद करते हैं।