•          अपने गुरु की मृत्यु से निराष होकर येरुसालेम से एम्माउस जा रहे थे ईसा के दो षिश्य। रास्ते में ईसा भी उनके साथ हो लिए। उन दुःखित षिश्यों को ईसा ने वह सब समझाया जो मूसा और अन्य सब नबियों ने मसीह के विशय में धर्मग्रन्थ में लिखा था। ईसा की उपस्थिति और वाणी से षिश्यों के मन उद्दीप्त हो रहे थे। फिर भी वे ईसा को नहीं पहचान सके। उद्दीप्त दिल से वे सराय में रात बिता रहे थे; तब ईसा ने उनके लिए रोटी तोड़ी। इस पर उनकी आँखें खुल गईं और वे ईसा को पहचान गए ...... उन्हें याद आई कि उनके हृदय उद्दीप्त हो रहे थे जब रास्ते में ईसा उनसे बातें कर रहे थे (लूकस 24: 13-35)। 
                            पवित्र वचन से उद्दीप्त हृदय से रोटी तोड़ते वक्त ही हम ईसा को पहचान सकते हैं। यह तथ्य हमारा अनुभव हो जाये, इस ढंग से पवित्र बलिदान में वचन की विधि व्यवस्थित की गई है। बलि समर्पण द्वारा ईसा को पहचानने तथा अनुभव करने में पवित्र बलिदान की प्रारंभिक विधि एवं वचन की विधि हमें तैयार करती हैं। 

    प्रारंभिक विधि

                             पवित्र बलिदान की प्रारंभिक विधि में हम आने वाले मुक्तिदाता के लिए इंतज़्ाार, उनके पवित्र जन्म और उनका अप्रत्यक्ष जीवन आदि का स्मरण करते हैं और उन्हें मनाते हैं। यह भाग ‘अथ श्री हमारा यह बलिदान ......’गीत से लेकर उत्थान गीत ‘हे सबके प्रभु .....’ के बाद की प्रार्थना तक है। 
     

    अथ श्री हमारा यह बलिदान

                               अथ श्री हमारा यह बलिदान ...... गीत यह सूचित करता है कि पास्का पर्व के समय ईसा ने जो आज्ञा दी है उसी के अनुसार हम यह बलि चढ़ाते हैं। परम प्रसाद की स्थापना के बाद ईसा ने कहा, ‘‘यह मेरी स्मृति में किया करो’’। जब कभी हम पवित्र बलिदान चढ़ाते हैं, तब इसी आज्ञा का स्मरण हम करते हैं। प्रेम की एक नई आज्ञा भी ईसा ने हमें उस दिन दी। बलि समर्पण की अनिवार्य योग्यता है प्रेम। मन में घृणा रखते हुए बलि अर्पित करें तो वह ईष्वर को स्वीकार्य नहीं है। ईसा ने कहा, ‘‘जब तुम वेदी पर अपनी भेंट चढ़ा रहे हो और तुम्हें वहाँ याद आए कि मेरे भाई को मुझसे कोई षिकायत है, तो अपनी भेंट वहीं वेदी के सामने छोड़कर पहले अपने भाई से मेल करने जाओ और तब आकर अपनी भेंट चढ़ाओ’’ (मत्ती 5: 23-24)। इसलिए जब हम यह गीत गाते हैं, तब यह सोचना चाहिए कि क्या मैं किसी से घृणा की भावना रखता हूँ या नहीं। यदि है, तो मन में उस व्यक्ति के साथ मेल-मिलाप करने के बाद ही बलि चढ़ानी है। 
     

    परमधाम में ईश्वर की महिमा

                                       ईसा के जन्म के समय स्वर्गदूतों ने यह गीत गाया था; यह हमें उनके जन्म का स्मरण दिलाता है। हम पापियों को मुक्ति दिलाने के लिए ईसा ने स्वर्ग की महिमा तजकर मानव के रूप में जन्म लिया और गौषाला के अभावों को सहकर हमें प्यार किया। ईसा के उस प्रेम का स्मरण करते हुए हमें इस समय ईष्वर की स्तुति करनी चाहिए। प्रतिज्ञात मुक्तिदाता का जन्मपाप की दासता में पड मानव के लिए मुक्ति के सुसन्देष की घोशणा थी। इस गीत के दूसरे चरण में ‘षान्ति’ षब्द का प्रयोग ‘मुक्ति’ के अर्थ में है। इस षान्ति की - मुक्ति की - पूर्णता की ओर हर एक मसीही बुलाया गया है।
     
    गतिविधि-1
    पवित्र बलिदान की पुस्तक की सहायता से खोजकर 
    लिखिए: 
    1. पवित्र बलिदान की प्रारंभिक विधि के अनुश्ठान क्या-क्या हैं?
    2. अनुश्ठानों का अर्थ उनके साथ दी गई प्रार्थनाओं में से समझकर लिखिए। 
     

    हे हमारे पिता

    ‘‘ईष्वर ने संसार को इतना प्यार किया कि उसने उसके लिए अपने इकलौते पुत्र को अर्पित कर दिया’’ (योहन 3: 16)। आदि माता-पिता ने पाप के द्वारा ईष्वरीय जीवन खो दिया था; उसे पुनः प्रदान करते हुए हमें ईष्वर की संतान बनाने हेतु ईसा ने मानव का रूप धारण किया। ईष्वर को ‘पिता’ कहकर पुकारने का अधिकार ईसा ने हमें प्रदान किया। इसलिए ईसा के जन्म का स्मरण करने के बाद हम ईष्वर को ‘पिता’ कहकर प्रार्थना करते हैं। ईष्वर की ओर हमारे विचारों को लगाते हुए उसकी स्तुति करने में ईसा की सिखाई हुई यह प्रार्थना हमारी मदद करती है।
                               ‘हे हमारे पिता जो स्वर्ग में हैं’ - इस प्रार्थना के साथ ‘पवित्र, पवित्र ........’ स्तुति गीत (कानोना) जोड़ दिया गया है। ‘पवित्र, पवित्र ........’ - यही स्तुति गीत स्वर्ग में सदा गूँजता रहता है। यह हमें स्मरण दिलाता है कि पवित्र बलिदान चढ़ाते वक़्त हम अकेले नहीं, बल्कि सभी स्वर्गवासी गण एवं भू-वासी गण हमारे साथ हैं। स्वर्गीय सान्निध्य का स्मरण करते हुए, भय-भक्त्यादर एवं प्रेम के साथ ही हमें ‘हे हमारे पिता जो स्वर्ग में है’ प्रार्थना बोलना चाहिए। 
     

    हम प्रार्थना करें, शांति हमारे साथ रहे

                           पवित्र बलिदान में उपयाजक इसे कई स्थानों पर दोहराता है। ईसा जो हमारे साथ निवास करते हैं उनके सान्निध्य की यह याद दिलाता है। जैसे सन्त पौलुस कहते हैं, ‘हमारी षांति ईसा है’ (एफेसियों 2: 14)। 14)।
     

    याजक की प्रार्थनाएँ (स्लोसाएँ)

                              आगे, याजक की प्रार्थनाओं में ईष्वर के दिये हुए इ स महादान (पवित्र बलिदान) के लिए धन्यवाद देते हैं और सुयोग्य रूप से बलिदान चढ़ाने की कृपा माँगते हैं।
     

    स्तोत्र 

                                       पुराने विधान की जनता मुक्तिदाता की बाट जोह रही थी; उनके इतिहास एवं जीवन की ओर नज़्ार डालते हुए उन्हें मुक्ति योजना का भाग समझने और स्वीकार करने में स्तोत्र हमें मदद करते हैं। इस्राएल जनता के धार्मिक जीवन में उनके दिल के धड़कन हैं स्तोत्र। उनके हृदय की भावनाओं के साथ मिलकर हम भी ईष्वर की स्तुति करते हैं। ईसा भी अपनी प्रार्थनाओं में स्तोत्रों का उपयोग करते थे। 
     

    सलीब का चुम्बन

    सीरो मलबार कलीसिया की महासमारोही विधि (रासा) का एक अनुश्ठान है यह। ईसा ने सलीब पर की अपनी बलि द्वारा ही मानव को मुक्ति दिलायी। ख्रीस्तीय जीवन में सलीब का स्थान और उसकी श्रेश्ठता स्वीकार करते हुए ईसा पर आस्था प्रकट करने का अनुश्ठान है सलीब का चुम्बन। हम विष्वास करते हैं कि ईसा के द्वितीय आगमन पर सलीब उनका चिह्न होगा। मसीह के इस द्वितीय आगमन के विशय में एवं उनकी प्रतीक्षा करने वाली दुल्हन - कलीसिया - के विशय में जो विचार धाराएँ हैं वे हैं सलीब के चुम्बन से संबंधित प्रार्थनाओं का सारांष।     उत्थान गीत ईसा के बप्तिस्मा की याद दिलाता है। इसे पुनरुत्थित ईसा की स्तुति में गाया हुआ एक गीत भी माना जाता है। (ईसा के बप्तिस्मा के समय स्वर्ग खुल गया एवं त्रित्व का रहस्य प्रकट किया गया - इनका स्मरण करते हुए यज्ञ-मंडप का पर्दा खोला जाता है। तब यज्ञ-मंडप, जो स्वर्ग का प्रतीक है, दृष्य होता है। दीप की प्रभा एवं धूप से भरा समूह स्वर्गीय अनुभूति प्रदान करती है।)   
                 ईसा का बप्तिस्मा, उनकी मृत्यु और पुनरुत्थान जो हैं उनका द्वितीय बप्तिस्मा, हमारा बप्तिस्मा जो हमें इनमें सहभागी बनाता है एवं वहस्वर्गीय महिमा जिसे हम प्राप्त करेंगे - इस गीत के समय हम इन सबकी याद करते हैं। याजक की अगली प्रार्थना के   प्रारंभिक विधि समाप्त होती है। 

    वचन की विधि 

                वचन की विधि में हम ईसा के सार्वजनिक जीवन, सुसमाचार की घोशणा और प्रेरिताई कार्य की याद करते हैं।  

    हे पावन ईश्वर

                   ‘हे पावन ईष्वर’ के साथ वचन की विधि प्रारंभ होती है। इसका पहला भाग उपयाजक का आह्वान है - ‘ऊँचे स्वर से जीवन्त ईष्वर का स्तुतिगान करें’। दूसरे भाग में पावन, षक्तिमान और अमर ईष्वर को स्वीकार करते हुए कृपा की याचना करते हैं। स्वर्गदूत ‘पवित्र, पवित्र, पवित्र’ कहकर ईष्वर की महिमा गाते हैं - इसायाह का वही अनुभव यह गीत हमें प्रदान करता है। 
     

    पवित्र वचन के वाचन

                                     हमारी पूजन विधि में चार वाचन हैं। पहला और दूसरा वाचन पुराने विधान में से तथा तीसरा तथा चैथा नये विधान में से हैं। पुराने विधान का सार संग्रह नियम तथा नबी हैं। इसीलिए साधारणतः पहला वाचन संहिता के ग्रन्थ, यानि पंच ग्रन्थ में से और दूसरा वाचन नबियों के ग्रन्थों में से हैं। कभी-कभी दूसरा वाचन प्रेरित चरित में से भी लिया जाता है। पत्रों एवं सुसमाचारों में से तीसरा तथा चैथा वाचन लिए जाते हैं। प्रत्येक वाचन की तैयारी में याजक प्रार्थना करता है और समूह गीत गाता है। जो ईष-वचन सुना है उसके प्रति आदर तथा आभार प्रकट करते हुए पहले और दूसरे वाचन के बाद समूह ‘हमारे प्रभु ईष्वर की स्तुति’ बोलता है; पत्र तथा सुसमाचार के वाचन के बाद ‘हमारे प्रभु ईसा मसीह की जय’ कहता है।
     

    सुसमाचार का जुलूस एवं वाचन

                          सुसमाचार वाचन के पहले याजक वेदी की दाहिनी ओर से सुसमाचार ग्रन्थ लेकर जुलूस में वचन वेदी की ओर आता है। पृथ्वी पर ईसा के आगमन को यह सूचित करता है। याजक सुसमाचार ग्रन्थ माथा के बराबर पकड़ते उतर आता है; यह सूचित करता है कि याजक नहीं, ईसा ही पवित्र वचन लेकर हमारी ओर आ रहे हैं। द्वितीय वैटिकन महासभा हमें यह सिखाती है कि ईष्वर की आराधना में पवित्र वचनों के वाचन में ईसा स्वयं ही हमसे बात करते हैं। जब याजक सुसमाचार से ‘आप लोगों को षांति’ कहकर आषिश देता है तब भक्त मण्डली सिर झुकाकर आषीर्वाद स्वीकार करती है।
    ईष वचन हमें ज्योति प्रदान करता और हमारा पथ आलोकित करता है (स्तोत्र 119: 105)। दैनिक जीवन में आवष्यक वचन प्रत्येक पवित्र बलिदान में ईसा ही हमसे बोलते हैं। ईष वचन जीवन, षक्ति तथा चंगाई प्रदान करता है। जब हम भक्त्यादर से ईष वचन सुनते एवं उसे जीवन में उतारते हैं तब हमारा जीवन वचन से प्रकाषित हो जाएगा।
     

    प्रवचन

                 ईष वचन की व्याख्या है प्रवचन। पवित्र बलिदान के समय जो प्रवचन विधिवत दिए जाते हैं उनके विषेश महत्व और षक्ति हैं। कलीसिया सिखाती है कि दैनिक जीवन की परिस्थितियों में ईष वचन को स्वीकार कर कैसे फल उत्पन्न कर सकते हैं। जो ध्यान से प्रवचन सुनता और उसका संदेष जीवन में उतारता है वह उस बुद्धिमान मनुश्य के सदृष होगा जिसने चट्टान पर अपना घर बनवाया।
     

    घोषणा प्रार्थना माला (कारोसूसा)

                                    सुने हुए वचन का हमारा प्रत्युत्तर और विष्वास की घोशणा है घोशणा प्रार्थना माला या कारोसूसा। घोशणा प्रार्थना माला में सांसारिक आवष्यकताओं के परे आत्मिक दानों के लिए हम याचना करते हैं। घोशणा प्रार्थना माला में हम ईष्वर की षक्ति और संरक्षण में हमारा विष्वास घोशित करते हैं। ईषवचन के अनुसार जीवन बिताने की कृपा की याचना करते हुए एवं पिता, पुत्र और पवित्रात्मा के दिव्य चरणों में हमें समर्पित करते हुए उपयाजक घोशणा प्रार्थना माला समाप्त करता है।
     

    आशीर्वाद की प्रार्थनाएँ

                                   पवित्र बलिदान का महत्वपूर्ण भाग है यज्ञ प्रार्थना (अनाफोरा); उसमें प्रवेष करने के पहले याजक आषीर्वाद की प्रार्थनाओं के द्वारा समूह को तैयार करता है। ज्ञानस्नान की तैयारी में लगे लोगों को वचन की विधि तक ही भाग लेने की अनुमति थी। उनको विदा करने के पहले की आषीर्वाद की प्रार्थना भी थी यह। जब याजक यह प्रार्थना बोलता है तब हमें सिर झुकाकर आषीर्वाद स्वीकार करना चाहिए।
              आषीर्वाद की प्रार्थना से वचन की विधि समाप्त होती है। वचन की  विधि द्वारा ईषवचन को आत्मिक भोजन के रूप में स्वीकार करते हुए हम रोटी तोड़ने की विधि के लिए तैयार हो सकते हैं।
     

    ईषवचन पढ़ें और मनन करें

    (योजन 1: 1 - 18)

    कंठस्थ करें

    ‘‘हमारा वि ाय वह ाब्द है, जो आदि से विद्यमान था। हमने उसे सुना है।
    हमने उसे अपनी आँखों से देखा है। हमने उसका अवलोकन किया और अपने हाथों से
    उसका स्पर्ष किया है। वह ाब्द जीवन है और यह जीवन प्रकट किया गया है।’’
    (1 योहन 1: 1)

    हम प्रार्थना करंे

    हे ईसा, हमें यह सहायता दे कि हम आदिम
    कलीसिया के जैसे एक हृदय और एक प्राण होकर पवित्र
    बलिदान अर्पित कर सकें।

    मेरा निर्णय

    पवित्र बलिदान के प्रवचनों को मैं ध्यान से सुनूँगा/गी।

    कलीसिया के आचार्य कहते हैं

    ‘‘जो दिल में अनैक्य की भावना रखते हुए पवित्र बलिदान अर्पित करने आता है,
    उसकी बलिवेदी से मसीह मुँह फैरते हैं।’’ (सन्त सिप्रियान)